पहला अध्याय
नैमिषारण्य
के पवित्र वन में, जहाँ
प्राचीन वृक्षों की छाँव में
सत्य की सनातन सुगंध
बिखरती थी, महामुनि शौनक
जी एक प्राचीन वटवृक्ष
के नीचे बैठे थे।
उनकी दृष्टि में वैराग्य की
अग्नि झिलमिलाती थी, और चेहरा
ज्ञान की गहनता से
दीप्त था। उनके सादे,
श्वेत वस्त्र, जो संन्यासी जीवन
की सादगी को दर्शाते थे,
हल्की हवा में लहरा
रहे थे। सामने बैठे
थे सूत जी, जिनका
चेहरा समय की रेखाओं
से अंकित था, और आँखों
में अनंत कथाओं का
समुद्र लहराता था। उनकी देह
पर सादा धोती और
कंधे पर एक पुराना
अंगवस्त्र था, जो उनके
तपस्वी जीवन का प्रतीक
था। उनकी वाणी में
एक ऐसी गंभीरता थी,
जो सुनने वालों के हृदय को
तुरंत बाँध लेती थी।
शौनक
जी ने गहरी साँस
लेते हुए, मानो सृष्टि
के रहस्यों को अपने भीतर
समेटते हुए, सूत जी
से पूछा, "हे महाज्ञानी सूत
जी, आप समस्त शास्त्रों
के ज्ञाता हैं, वेदों और
पुराणों के गूढ़ रहस्य
आपके हृदय में बसे
हैं। कृपया मुझे उस परम
साधन का रहस्य बताएँ,
जो इस कलियुग के
अंधेरे में मनुष्य को
पापों के दलदल से
निकालकर शिव के चरणों
तक ले जाए। वह
साधन जो मन को
शुद्ध करे, हृदय को
भक्ति की ज्योति से
आलोकित करे, और आत्मा
को परम शांति प्रदान
करे। इस युग में,
जहाँ जीव आसुरी स्वभाव
में डूब चुके हैं,
काम, क्रोध, और लोभ की
आग में जल रहे
हैं, वह कौन-सा
मार्ग है, जो मनुष्य
को शिव के उस
अनंत स्वरूप की ओर ले
जाए, जहाँ न दुख
है, न भय, केवल
परम आनंद?"
उनके
शब्दों में एक ऐसी
करुणा थी, जो सुनने
वाले के हृदय को
झकझोर देती थी। उनकी
वाणी में एक गहरी
लालसा थी, मानो वह
सृष्टि के उस रहस्य
को खोज रहे हों,
जो जीवन और मृत्यु
के पार ले जाए।
सूत
जी ने एक गहरी
नजर शौनक जी पर
डाली, उनकी आँखों में
एक रहस्यमय चमक थी, जैसे
वह किसी गहन सत्य
को उजागर करने वाले हों।
उनकी वाणी, जो मानो स्वयं
शिव के कंठ से
निकल रही हो, धीरे-धीरे गूँजने लगी।
"हे शौनक, तुम धन्य हो!
तुम्हारे हृदय में वह
प्यास है, जो केवल
परम सत्य ही बुझा
सकता है। तुम्हारा प्रश्न
इस सृष्टि के उस गूढ़
रहस्य को खोलता है,
जो अनादिकाल से संन्यासियों और
साधकों के लिए मार्गदर्शक
रहा है। सुनो, मैं
तुम्हें उस अमृतमय पुराण
की कथा सुनाता हूँ,
जो स्वयं भगवान शिव के हृदय
से प्रकट हुआ, जो पापों
का नाश करता है,
और जो मनुष्य को
परम धाम की ओर
ले जाता है—वह
है शिव पुराण।"
उनके
शब्दों में एक ऐसी
शक्ति थी, मानो प्रत्येक
शब्द में शिव का
आलोक छिपा हो। वन
की शांति और गहरा गई,
जैसे प्रकृति स्वयं इस कथा को
सुनने को आतुर हो।
"यह
पुराण," सूत जी ने
आगे कहा, "कोई साधारण ग्रंथ
नहीं। यह वह ज्योति
है, जो अंधेरे में
मार्ग दिखाती है। यह वह
संगीत है, जो हृदय
की तारों को झंकृत करता
है। इसका प्रारंभ स्वयं
भगवान शिव ने किया,
जब उन्होंने इसे प्राचीन काल
में अपने भक्तों को
उपदेश दिया। गुणनिधि व्यास जी ने, जो
स्वयं वेदों के रचयिता हैं,
इसे संनकुमार मुनि के उपदेश
से संकलित किया। इस पुराण में
वह शक्ति है, जो कलियुग
के इस विषमय संसार
में मनुष्य को पवित्रता और
मुक्ति का मार्ग दिखाती
है।"
सूत
जी की वाणी में
अब एक रहस्यमय गहराई
थी। "शिव पुराण में
चौबीस हजार श्लोक हैं,
जो सात संहिताओं में
बँटे हैं। प्रत्येक श्लोक
एक मंत्र है, जो हृदय
को शिव की ओर
ले जाता है। यह
पुराण वह दर्पण है,
जिसमें मनुष्य अपने सच्चे स्वरूप
को देख सकता है।
यह वह नदी है,
जो पापों को धोकर आत्मा
को निर्मल करती है। जो
इसे भक्तिपूर्वक पढ़ता है, सुनता है,
या इसका पूजन करता
है, वह न केवल
इस लोक में सुख
भोगता है, अपितु अंत
में शिवलोक को प्राप्त करता
है।"
उनके
शब्दों में एक ऐसी
तीव्रता थी, जो सुनने
वाले के मन को
झकझोर देती थी। शौनक
जी की आँखों में
एक अजीब सी चमक
थी, मानो वह उस
अनंत सत्य को देख
रहे हों, जिसकी खोज
में वह वर्षों से
भटक रहे थे।
"हे
शौनक," सूत जी ने
और गहरे स्वर में
कहा, "यह पुराण केवल
शब्दों का संग्रह नहीं।
यह वह रहस्य है,
जो सृष्टि के प्रारंभ से
छिपा है। इसमें भगवान
शिव का वह विशाल
स्वरूप वर्णित है, जो अनंत
आकाश से भी विशाल
है, और जो हृदय
की गहराइयों में बस्ता है।
जो मनुष्य इसे भक्तिपूर्वक पढ़ता
है, उसके हृदय में
शिव का प्रकाश उतरता
है। उसके सारे पाप,
जो अनादिकाल से संचित हैं,
उस क्षण धूल में
मिल जाते हैं। वह
मनुष्य काम, क्रोध, और
लोभ के बंधनों से
मुक्त हो जाता है।
उसका हृदय निर्मल हो
जाता है, जैसे गंगा
का जल।"
सूत
जी ने एक क्षण
रुककर शौनक जी की
ओर देखा। उनकी आँखों में
एक गहन करुणा थी,
मानो वह शौनक के
हृदय के दर्द को
स्वयं महसूस कर रहे हों।
"इस पुराण का पाठ करने
वाला, सुनने वाला, या इसका आदर
करने वाला मनुष्य केवल
सुख ही नहीं पाता,
वह उस परम सत्य
को पाता है, जो
जीवन और मृत्यु के
पार है। भगवान शिव
स्वयं उस भक्त पर
कृपा करते हैं। वह
उसे अपने धाम में
स्थान देते हैं, जहाँ
न दुख है, न
भय, केवल अनंत शांति।"
शौनक
जी के चेहरे पर
एक गहन शांति छा
गई। उनकी आँखों में
आँसुओं की एक हल्की
चमक थी, मानो वह
उस सत्य को अपने
हृदय में अनुभव कर
रहे हों। सूत जी
ने अंत में कहा,
"हे शौनक, शिव पुराण वह
अमृत है, जो इस
कलियुग के विष को
नष्ट करता है। यह
वह मार्ग है, जो मनुष्य
को धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष—चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति कराता
है। इसे भक्तिपूर्वक पढ़ो,
सुनो, और इसका पूजन
करो। यह तुम्हें उस
परम शिव तक ले
जाएगा, जिनके चरणों में सृष्टि का
सारा सुख और शांति
समाहित है।"
उनके
शब्दों के साथ वन
में एक गहन शांति
छा गई। मानो स्वयं
शिव वहाँ उपस्थित हों,
और उनकी कृपा की
वर्षा हो रही हो।
शौनक जी ने हाथ
जोड़कर सूत जी को
प्रणाम किया, और उनके हृदय
में एक गहरी शांति
और भक्ति की लहर उठी।
वह जान चुके थे
कि शिव पुराण केवल
एक ग्रंथ नहीं, अपितु वह रहस्यमय मार्ग
है, जो आत्मा को
परम सत्य तक ले
जाता है।
इस कथा का अंत
इतना गहरा था कि
सुनने वाला अपने भीतर
एक अजीब सी शांति
और भक्ति का अनुभव करता
था। शिव पुराण की
यह कथा, जो सूत
जी ने सुनाई, न
केवल एक कहानी थी,
बल्कि एक ऐसा रहस्य
था, जो हृदय को
छू लेता था, और
सुनने वाले को देर
तक उसकी गहराइयों में
डुबोए रखता था।


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