दूसरा अध्याय:
श्री शौनक जी ने करबद्ध होकर कहा, "हे सूत जी! आप परम तत्व के साक्षात् द्रष्टा हैं। आपकी कृपा से यह दिव्य कथा सुनकर मेरा हृदय आनंद से भर गया। इस भूतल पर ऐसी कल्याणकारी कथा दूसरी नहीं। आपने जो यह अमृतमयी वाणी हमें प्रदान की, उससे हम कृतार्थ हुए। हे मुनिवर, कृपया बताएं, इस कथा के श्रवण से किन पापियों का उद्धार होता है? इस जगत को यह रहस्य स्पष्ट कर कृतकृत्य करें।"
सूत जी ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया, "हे मुने! जो मनुष्य पाप के गहरे सागर में डूबे हैं, जो काम, क्रोध, लोभ, और मद में लिप्त होकर अधर्म के पथ पर भटकते हैं, वे भी इस शिव पुराण के श्रवण से पवित्र हो जाते हैं। उनके पापों का नाश होकर वे शिवलोक की ओर अग्रसर होते हैं। इस संदर्भ में मैं तुम्हें एक रहस्यमयी कथा सुनाता हूँ, जो हृदय को झकझोर देगी और शिव भक्ति का दीप प्रज्वलित करेगी।"
देवराज ब्राह्मण की कथा
प्राचीन काल की बात है। किरातों के एक सुदूर नगर में देवराज नामक एक ब्राह्मण निवास करता था। वह ज्ञान में दुर्बल, निर्धन, और रस बेचने वाला था। वैदिक धर्म से उसका मन विमुख हो चुका था। न स्नान, न संध्या, न कोई पुण्य कर्म—उसके हृदय में केवल वैश्यवृत्ति का अंधकार बढ़ता जा रहा था। वह भक्तों को ठगता, उनकी श्रद्धा का मोल भाव करता। उसने अनेक निर्दोषों का वध कर उनका धन हड़प लिया था। उस पापी ने कभी थोड़ा-सा भी धन धर्म के कार्य में नहीं लगाया। वह वेश्यागमन में लिप्त था, आचार-विचार से भ्रष्ट, और पाप के दलदल में धँसा हुआ। उसका जीवन ऐसा था मानो वह यमपुरी का रास्ता स्वयं बुन रहा हो।
एक दिन, दैवयोग से वह घूमता-घामता प्रतिष्ठानपुर (झूसी, प्रयाग) पहुँचा। वहाँ एक प्राचीन शिवालय था, जहाँ का वातावरण रहस्यमय और अलौकिक था। रात के समय, जब चंद्रमा की किरणें शिवलिंग पर पड़ रही थीं, वहाँ साधु-महात्माओं का समूह एकत्र था। उनकी वाणी में शिव भक्ति की मधुर गंगा बह रही थी। देवराज, जो अब तक केवल सांसारिक माया में डूबा था, उस शिवालय के प्रांगण में ठहर गया। वहाँ की अलौकिक शांति ने उसके हृदय को छू लिया, यद्यपि वह स्वयं इसका अर्थ न समझ सका।
रात गहराने लगी। अचानक देवराज को तीव्र ज्वर ने घेर लिया। उसका शरीर जलने लगा, मानो पापों की अग्नि उसे भस्म कर रही हो। वह कराहता हुआ शिवालय के एक कोने में पड़ा रहा। उसी समय, वहाँ एक ब्राह्मण शिव पुराण की कथा सुना रहा था। उसकी वाणी ऐसी थी, मानो स्वयं शिव अपनी कथा कह रहे हों। ज्वर से पीड़ित देवराज, जो अब मृत्यु के निकट था, उस कथा को सुनने लगा। हर शब्द उसके हृदय में गूँज रहा था, जैसे कोई अदृश्य शक्ति उसके पापों को धो रही हो। वह कथा शिव के करुणामय स्वरूप, उनके त्रिशूल की महिमा, और रुद्राक्ष की पवित्रता की थी। देवराज, जो कभी धर्म से दूर था, अब अनजाने में उस कथा के रस में डूबता जा रहा था।
एक मास तक वह ज्वर से तड़पता रहा। हर रात वह कथा सुनता, और हर शब्द उसके अंतर्मन में एक नया प्रकाश जलाता। अंततः, एक रात उसका देहांत हो गया। उसका शरीर ठंडा पड़ गया, किंतु उसकी आत्मा अभी भी उस कथा की गूँज से बँधी थी। यमराज के दूत, जिनके चेहरों पर क्रूरता और कठोरता थी, उसे बाँधकर यमपुरी ले गए। देवराज की आत्मा भय और पश्चाताप से काँप रही थी। यमपुरी का मार्ग अंधकारमय था, और वहाँ का वातावरण ऐसा था, मानो सारी सृष्टि उस पापी आत्मा का उपहास कर रही हो।
परंतु, तभी एक चमत्कार हुआ। आकाश में एक अलौकिक ज्योति प्रकट हुई। शिवलोक से भगवान शिव के पार्षदगण अवतरित हुए। उनके शरीर कर्पूर के समान उज्ज्वल थे, उनके हाथों में त्रिशूल चमक रहा था, और उनके शरीर पर भस्म लगी थी, जो उनकी पवित्रता का प्रतीक थी। गले में रुद्राक्ष की माला उनकी शोभा को और बढ़ा रही थी। उनकी आँखों में करुणा थी, किंतु उनका रूप इतना भयंकर था कि यमदूत काँप उठे। शिव के पार्षदों ने यमदूतों को मार-पीटकर देवराज को उनके चंगुल से मुक्त कर लिया।
शिवदूतों ने देवराज को एक अद्भुत विमान में बिठाया, जो स्वर्ण और मणियों से सुसज्जित था। वह विमान आकाश में उड़ता हुआ कैलाश पर्वत की ओर बढ़ा। यमपुरी में कोलाहल मच गया। यमराज, जो स्वयं धर्म के रक्षक थे, इस दृश्य को देखकर स्तब्ध रह गए। वे अपने भवन से बाहर आए और शिवदूतों को देखकर उनके सामने नतमस्तक हो गए। उनकी ज्ञानदृष्टि ने सारा रहस्य समझ लिया—देवराज ने शिव पुराण की कथा सुनी थी, और उसी के प्रभाव से वह शिवलोक का पात्र बन गया था। भय और श्रद्धा से यमराज ने कोई प्रश्न नहीं किया।
शिवदूत देवराज को कैलाश ले गए। वहाँ का दृश्य अलौकिक था। कैलाश पर्वत की चोटियाँ चाँदी की तरह चमक रही थीं, और गंगा की धारा संगीतमय लय में बह रही थी। वहाँ भगवान शिव, करुणावतार में विराजमान थे। उनकी जटाओं से गंगा की धारा निकल रही थी, और उनका त्रिशूल सृष्टि की रक्षा का प्रतीक था। शिवदूतों ने देवराज को भगवान शिव के चरणों में सौंप दिया। देवराज की आत्मा, जो कभी पापों से बोझिल थी, अब शिव की कृपा से मुक्त हो चुकी थी। उसका हृदय आनंद और भक्ति से भर गया।
चंचुला की कथा
शौनक जी ने हाथ जोड़कर कहा, "हे सूत जी! आप सर्वज्ञ हैं। इस कथा ने मेरे हृदय में शिव भक्ति का दीप प्रज्वलित कर दिया। मेरा मन आनंद और रहस्य से भर गया है। कृपया ऐसी ही एक और कथा सुनाएँ, जो भगवान शिव के प्रति प्रेम को और गहरा करे।"
सूत जी ने मुस्कुराते हुए कहा, "हे शौनक! सुनो, अब मैं तुम्हें चंचुला की कथा सुनाता हूँ, जो संसार से वैराग्य की ओर ले जाती है।"
प्राचीन काल में, एक नगर में चंचुला नाम की एक स्त्री रहती थी। वह रूपवती थी, किंतु उसका मन सांसारिक सुखों में डूबा था। वह विलासिता और भोग-विलास में लिप्त थी। उसका जीवन ऐसा था, मानो वह माया के जाल में फँसी हो। किंतु एक दिन, दैवयोग से वह एक शिव भक्त के संपर्क में आई। उस भक्त ने उसे शिव पुराण की कथा सुनाई। चंचुला, जो पहले कभी धर्म से दूर थी, उस कथा को सुनकर विचलित हो उठी। उसका हृदय पश्चाताप से भर गया। उसने अपने पापमय जीवन को त्यागने का संकल्प लिया।
वह एक शिवालय में जाकर भगवान शिव की भक्ति में लीन हो गई। उसने स्नान, संध्या, और शिव पूजन को अपने जीवन का आधार बनाया। उसकी भक्ति ऐसी थी कि स्वयं शिव उसके समक्ष प्रकट हुए। उन्होंने चंचुला को आशीर्वाद दिया और उसे संसार के बंधनों से मुक्त कर दिया। चंचुला का हृदय वैराग्य से भर गया, और वह शिवलोक की ओर अग्रसर हुई।
सूत जी ने कहा, "हे शौनक! यह कथा सिद्ध करती है कि शिव पुराण का श्रवण और भगवान शिव की भक्ति पापियों को भी मुक्ति का मार्ग दिखाती है। जो मनुष्य इस कथा को श्रद्धा से सुनता है, उसके हृदय में शिव भक्ति का दीप प्रज्वलित होता है, और वह संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।"
शौनक जी ने सूत जी के चरणों में प्रणाम किया और कहा, "हे महाभाग! आपकी कृपा से मेरा जीवन धन्य हो गया। यह कथा मेरे हृदय में सदा के लिए अंकित हो गई।"


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